N.I. Act क्या न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी पराक्रम्य लिखत विलेख अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अन्तर्गत प्रावचित अपराध के लिये दोषसिद्ध अभियुक्त पर रूपया 5000 /- से अधिक अर्थदण्ड अधिरोपित कर सकता है?

क्या न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी पराक्रम्य लिखत विलेख अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अन्तर्गत प्रावचित अपराध के लिये दोषसिद्ध अभियुक्त पर रूपया 5000 /- से अधिक अर्थदण्ड अधिरोपित कर सकता है?

दाण्डिक मामले में दण्ड अधिरोपित करने के बारे में न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी की सामान्य अधिकारिता का उल्लेख दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 29 (2) में किया गया है जो निम्नवत् -

"29 (2). The Court of a Magistrate of the first class may pass a sentence of imprisonment for a term not exceeding three years, or of fine not exceeding five thousand rupees or of both."

लिखत विलेख अधिनियम, 1881 (अत्रपश्चात केवल “अधिनियम”) में धारा 138 के अपराध के लिये दो वर्ष तक का कारावासीय दण्ड तथा अनादृत चैक की राशि की दुगनी राशि तक अर्थदण्ड का प्रावधान 'अधिनियम' की धारा 138 में किया गया है।

'अधिनियम की धारा 43(1) जो दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 के सदप्रतिकूल उपबंधों के बावजूद न्या.म.प्र.श्रे. को धारा 138 के अपराधों का संक्षिप्त विचारण करने की अधिकारिता प्रदान करती है, निम्नवत् है :-

"143. Power of Court to try cases summarily - (1) Notwithstanding anything contained in the Code of Criminal Procedure, 1973 (2 of 1974), all offences under this Chapter shall be tried by a Judicial Magistrate of the first class or by a Metropolitan Magistrate and the provisions of sections 262 to 265 (both inclusive) of the said Code shall, as far as may be, apply to such trials:

Provided that in the case of any conviction in a summary trial under this section, it shall be lawful for the Magistrate to pass a sentence of imprisonment for a term not exceeding one year and an amount of fine exceeding five thousand rupees."

धारा 143 (1) के अवलोकन से प्रकट होता है। कि यदि न्या.म.प्र.श्रे. द्वारा धारा 138 के अपराध का विचारण संक्षिप्त प्रक्रिया के अन्तर्गत किया जा रहा है तो दोषसिद्ध व्यक्ति पर एक वर्ष से अनाधिक कारावासीय दण्ड तथा रूपया 5000/- से अधिक अर्थदण्ड अधिरोपित करने की अधिकारिता उसे प्राप्त है।

अतः यह तो निःसंदेह स्पष्ट है कि संक्षिप्त विचारण में न्या.म.प्र.श्रे. धारा 138 के अपराध के लिये अनादृत चैक की दुगनी राशि की सीमा तक अर्थदण्ड अधिरोपित कर सकता है भले ही ऐसी राशि रूपये 5000/- 7 अधिक हो लेकिन ऐसे अपराध के लिये समन विचारण के अंतर्गत अभिलिखित दोषसिद्धि में 5000/- रूपये से अधिक अर्थदण्ड अधिरोपित करने की स्पष्ट अधिकारिता के अभाव में ऐसा करना कहां तक विधि सम्मत होगा यह निर्वाचन का विषय हो सकता है क्योंकि धारा 143 में प्रयुक्त भाषा का सहज, सरल एवं शाब्दिक निर्वाचन ऐसी किसी अधिकारिता के अभाव की ओर इंगित करता है। उक्त स्थिति किंचित विस्मयजनक लग सकती है क्योंकि दाण्डिक प्रक्रिया के अन्तर्गत संक्षिप्त विचारण में दण्ड अधिरोपित करने की शक्तियां सामान्य विचारण में दण्ड अधिरोपित करने की शक्तियों से किंचित सीमित होती है (संदर्भ धारा 202(1) दण्ड प्रक्रिया संहिता), लेकिन धारा 143 के वाचन से अर्थदण्ड के विषय में प्रतिकूल स्थिति प्रकट होती है क्योंकि जहां एक ओर संक्षिप्त विचारण में रूपया 5000/- से अधिक अर्थदण्ड अधिरोपित किया जा सकता है वही दूसरी ओर समन विचारण में ऐसी विनिर्दिष्ट अधिकारिता का अभाव होने के कारण दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 29(2) के अंतर्गत रूपये 5000/- का अर्थदण्ड अधिरोपित करने की अधिकारिता रहेगी। 'अधिनियम 1881 में धारा 143 वर्ष 2001 के संशोधन द्वारा वास्तव में इस उद्देश्य से जोड़ी गई ताकि न्या.म.प्र.श्रे. के समक्ष विचारण में ही मामले में यथोचित दण्ड अधिरोपित किया जा सके लेकिन धारा 143 की उक्त शब्दावली, जो विधायन की बुद्धि का आभास कराती है, संशोधन के मूल उद्देश्य को काफी सीमा तक निष्प्रभावी बना देती है।

 


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