Indian P.C 376 भारतीय दंड संहिता बलात्कार के बारे में
बलात्कार के बारे में
बलात्कार महिलाओं के प्रति अत्यन्त घृणित अपराध है। इसके बारे में
भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा 375, 376, 376ए से 376 डी एवं 228 ए में प्रावधान है। धारा 354 भा.दं.सं. में शील भंग के बारे में और
धारा 377 भा.दं.सं. में अप्राकृतिक कृत्यों के बारे में प्रावधान है। धारा 309, 327 एवं 357 दं.प्र.सं. तथा 114 ए भारतीय साक्ष्य
अधिनियम में भी कुछ प्रावधान है यहाँ हम इन्हीं अपराधों से जुड़े दिन-प्रतिदिन के
कार्य के कुछ महत्वपूर्ण बिन्दु और उन पर नवीनतम वैधानिक स्थिति के बारे में चर्चा
करेंगे।
1. बंद कमरे में विचारण या केमरा ट्रायल
इन मामलों के जांच या विचारण में बंद कमरे में कार्यवाही आज्ञापक हैं
अतः प्रत्येक न्यायाधीश को इन मामलों में विचारण के समय या जांच के समय सतर्क रहना
चाहिए व कार्यवाही बंद कमरे में या केमरा ट्रायल करना चाहिए और आदेश पत्र में इस
बावत उल्लेख भी करना चाहिए। आवश्यक प्रावधान धारा 327 दं.प्र.सं. ध्यान रखे जाने योग्य है जो
निम्न प्रकार से हैः-
धारा 327 (2) दं.प्र.सं. 1973 के तहत धारा 376, 376ए से 376 डी भा.दं.सं. के अधीन बलात्संग के मामलों में अपराध की जांच या
विचारण बंद कमरे में किया जायेगा लेकिन यदि न्यायालय उचित समझता है या दोनों में
से किसी पक्षकार द्वारा आवेदन करने पर किसी व्यक्ति को उस कमरे में प्रवेश की
अनुमति न्यायालय दे सकता हैं।
बंद कमरे में विचारण जहां तक संभव हो किसी महिला न्यायाधीश या
मजिस्ट्रेट द्वारा संचालित किया जायेगा।
धारा 327 (3) दं.प्र.सं. के तहत उक्त कार्यवाही न्यायालय की पूर्व अनुमति के बिना
मुद्रित या प्रकाशित करना किसी व्यक्ति के लिए विधि पूर्ण नहीं होगा।
परंतु मुद्रण या प्रकाशन का प्रतिबंध पक्षकारों के नाम तथा पतों की
गोपनीयता को बनाये रखने के शर्त पर समाप्त किया जा सकता हैं।
न्यायदृष्टांत साक्षी विरूद्ध यूनियन ऑफ इंडिया, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 3566 में यह प्रतिपादित किया गया है की धारा 354 एवं 377 भा.दं.सं. में भी बंद
कमरे में विचारण किया जाना चाहिए।
कई बार ऐसी परिस्थिति उत्पन्न होती है की न्यायाधीश के पास चेम्बर
नहीं होता है ऐसे समय पर न्यायदृष्टांत वरदू राजू विरूद्ध स्टेट ऑफ कर्नाटक, 2005 सी.आर.एल.जे. 4180 से मार्गदर्शन लेना चाहिए और न्यायालय के मुख्य हॉल से संबंधित मामले
के पक्षकारों के अलावा अन्य सभी व्यक्तियों को कक्ष से बाहर कर देना चाहिए और आदेश
पत्र में इस बारे में उल्लेख कर लेना चाहिए की बंद कमरे में कार्यवाही की गई है।
1 ए. विचारण की अवधि
धारा 309 दं.प्र.सं. के परंतुक के अनुसार इन अपराधों का विचारण साक्षियों के
परीक्षण के दिनांक से दो माह के अंदर पूरा किया जाना चाहिए। अतः न्यायालय को यह
ध्यान रखना चाहिए की इन मामलों में साक्ष्य की तिथियाँं इस प्रकार लगावे की विचारण
दोे माह में पूर्ण हो सके। वैसे भी इन मामलों में त्वरित निराकरण अपेक्षित है ताकि
समाज में उचित संदेश जावे।
2. न्यायालय को संवेदनशील रहने के बारे में
न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ पंजाब विरूद्ध रामदेव सिंह (2004) 1 एस.सी.सी. 421 में यह प्रतिपादित किया गया है कि बलात्कार अभियोक्त्रि के भारतीय
संविधान के अनुच्छेद 21 में दिये गये मूलभूत अधिकार को भंग करता है। न्यायालय को ऐसे प्रकरण
का विचारण करते समय बहुत संवेदनशील रहना चाहिए।
3. अभियोक्त्रि की पहचान के बारे में
इन मामलों में अभियोक्त्रि की पहचान का प्रकाशन न हो इसका ध्यान रखना
चाहिए क्योंकि यह दण्डनीय अपराध भी हैं धारा 228 ए में इस बावत प्रावधान है:-
228ए भा.दं.सं. के
अनुसार बलात्संग के पीड़ित व्यक्ति की पहचान के बारे में मुद्रित या प्रकाशित करेगा
वह दो वर्श के कारावास से दण्डित किया जा सकता है ।
न्यायदृष्टांत भूपेन्द्र शर्मा विरूद्ध स्टेट ऑफ
हिमाचल प्रदेश (2003)
8 एस.सी.सी. 551 में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि
सामाजिक उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए यह आवश्यक है कि उच्च न्यायालय या
अधीनस्थ न्यायालयों के निर्णयों में भी परिवादी के नाम का उल्लेख नहीं किया जावे
और उसे केवल विक्टिम लिखा जावे।
अतः निर्णय में भी अभियोक्त्रि शब्द का उल्लेख करना चाहिए उसके नाम
का उल्लेख नहीं करना चाहिए।
4. पर्दा या अन्य व्यवस्था
न्यायदृष्टांत साक्षी विरूद्ध यूनियन ऑफ इंडिया, ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 3566 में यह दिशा निर्देश दिये गये है कि पर्दा या अन्य ऐसी व्यवस्था करना
चाहिए ताकि अभियोक्त्रि अभियुक्त के चेहरे या शरीर को न देख सके। लेकिन अभियुक्त
की पहचान कथन के दौरान परिवादी से करवाना चाहिए।
5. परीक्षण के बारे में
उक्त न्यायदृष्टांत साक्षी में यह भी प्रतिपादित किया है कि घटना से
सीधे संबंधित प्रश्न जो प्रतिपरीक्षण में पूछे जाना है वे लिखित में पीठासीन
अधिकारी को दिये जाना चाहिए और उनके द्वारा स्पश्ट और असंदिग्ध भाशा में प्रश्न
पूछे जाना चाहिए अभियोक्त्रि को जो बाल साक्षी हो उसे परीक्षण के दौरान जब भी आवश्यक
हो पर्याप्त विश्राम देने के भी निर्देश हैं इस तरह अभियोक्त्रि के परीक्षण के समय
इस न्याय दृश्टांत में दिये गये दिशा निर्देशों का पालन करना चाहिए मूल रूप से
तात्पर्य यही है की अभियोक्त्रि को परीक्षण के दौरान अनावश्यक पीड़ा से बचाना है और
उसे एक ऐसा माहौल उपलब्ध कराना है जिसमें वह अपनी बात स्पष्ट रूप से और असंदिग्ध
रूप से न्यायालय के सामने ला सके।
6. प्रवेशन या पेनीट्रेशन के बारे में
न्यायदृष्टांत सतपाल विरूद्ध स्टेट ऑफ हरियाणा (2009) 6 एस.सी.सी 635 में यह प्रतिपादित किया गया है कि बलात्कार के घटक की तुश्टि के लिए
पूर्ण प्रवेशन आवश्यक नहीं है। इस संबंध में न्यायदृष्टांत भूपेन्द्र शर्मा
विरूद्ध स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश (2003) 9 एस.सी.सी. 551 अवलोकनीय है। इस संबंध में
न्यायदृष्टांतअमन कुमार विरूद्ध स्टेट ऑफ हरियाणा (2004) 4 एस.सी.सी. 379 भी अवलोकनीय है जिसके अनुसार प्रवेशन बलात्संग के आरोप के लिए
अनिवार्य तत्व है ।
7. हाईमन का फटना
बलात्कार के अभियोग को प्रमाणित करने के लिए हाईमन का फटना आवश्यक
नहीं है केवल प्रवेशन या आंशिक प्रवेशन ही पर्याप्त होता हैं इस संबंध में
न्यायदृष्टांत मदन गोपाल विरूद्ध नवल दुबे, (1992) 3 एस.सी.सी. 204 अवलोकनीय हैं।
8. प्रथम सूचना प्रतिवेदन में विलम्ब
प्रायः इन मामलों में एक तर्क यह किया जाता है कि प्रथम सूचना विलम्ब
से दर्ज करवायी गयी है अतः अभियोजन कहानी विश्वसनीय नहीं है । ऐसे मामलों में यह
ध्यान रखना चाहिए कि एक लड़की या महिला जिसके साथ बलात्कार का अपराध होता है वह
किसी को भी घटना बतलाने में अनिच्छुक रहती है। यहाँ तक कि अपने परिवार के सदस्यों
को भी घटना बतलाने में अनिच्छुक रहती है । साथ ही परिवार की प्रतिश्ठा का भी
प्रश्न जुड़ा रहता है। अतः इन मामलों में प्रथम सूचना में विलम्ब अस्वाभाविक नहीं
है। न्यायालय को विलम्ब के स्पश्टीकरण पर विचार करना चाहिए और विलंब को उक्त
परिस्थितियों को मस्तिश्क में रखते हुये विचार में लेना चाहिए।
न्यायदृष्टांत ओम प्रकाश विरूद्ध स्टेट ऑफ हरियाणा, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 2682 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रथम
सूचना दर्ज करवाने में कुछ विलम्ब हुआ है और उसका स्पश्टीकरण भी दिया गया है। एक
जवान लड़की जिसके साथ बलात्कार होता है वह घटना का विवरण किसी को भी यहाँ तक कि
परिवार के सदस्यों को बतलाने में अनिच्छुक रहती है । और जैसे ही उसके द्वारा घटना
का विवरण बतलाया जाता है उसके बाद प्रथम सूचना दर्ज करवायी जाती है । एक बार
विलम्ब का संतोशजनक स्पष्टीकरण दे दिया जाता है । तब मात्र प्रथम सूचना दर्ज कराने
में विलम्ब अभियोजन के मामले में घातक नहीं होता है।
न्यायदृष्टांत सोहन सिंह विरूद्ध स्टेट ऑफ बिहार, (2010) 1 एस.सी.सी. 68 में यह प्रतिपादित
किया गया है किसी हिन्दू महिला द्वारा बलात्कार के अपराध की प्रथम सूचना दर्ज
करवाना हो तब कई प्रश्न विचार के लिए उत्पन्न होते हैं। उसके बाद प्रथम सूचना दर्ज
करवाने का निश्चय किया जाता है । अभियोक्त्रि जिस पर ऐसा अपराध किया गया हो उसकी
दशा का मूल्यांकन करना चाहिए। इस संबंध में न्यायदृष्टांत संतोश मूल्या विरूद्ध
स्टेट ऑफ कर्नाटक,
(2010) 5 एस.सी.सी. 445 अवलोकनीय है । जिसमें 42 दिन के प्रथम सूचना
दर्ज करवाने के विलम्ब के स्पश्टीकरण पर विचार करते हुए उसे संतोशजनक माना गया।
न्यायदृष्टांत सतपाल सिंह विरूद्ध स्टेट ऑफ हरियाणा, (2010) 8 एस.सी.सी. 714 में यह प्रतिपादित किया गया है कि बलात्कार के मामले में प्रथम सूचना
में विलम्ब होना एक सामान्य बात है क्योंकि सामान्यतः अभियोक्त्रि का परिवार यह
नहीं चाहता कि अभियोक्त्रि पर कोई लांछन लगे । अतः इन मामलों में प्रथम सूचना के
विलम्ब को भिन्न मानदंड में लेना चाहिए।
प्रथम सूचना लिखने में विलम्ब पुलिस के असहयोग के कारण हुआ । मामले
में अभियोक्त्रि और उसकी माता की स्पश्ट और अकाट्य साक्ष्य अभिलेख पर थी । विलम्ब
अभियोजन के मामले पर संदेह कारित नहीं करता है । इस संबंध में न्यायदृष्टांत जसवंत सिंह विरूद्ध
स्टेट ऑफ पंजाब, ए.आई.आर. (2010) एस.सी. 894 अवलोकनीय है।
न्यायदृष्टांत नंदा विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 2311 में यह प्रतिपादित किया गया है कि प्रथम
सूचना पिता के घर लौटने पर की गयी क्योंकि परिवार की प्रतिष्ठा का प्रश्न और
अभियोक्त्रि का भविष्यदांव पर था । ऐसे में विलम्ब का स्पश्टीकरण पर्याप्त है और
विलम्ब तात्विक नहीं है।
न्यायदृष्टांत सतपाल विरूद्ध स्टेट ऑफ हरियाणा, (2009) 6 एस.सी.सी 635 में यह प्रतिपादित किया गया है कि यह न्यायालय इस बात का ज्यूडीशियल
नोटिस ले सकता है कि अभियोक्त्रि़ का परिवार यह नहीं चाहेगा कि अभियोक्त्रि पर कोई
स्टिगमा या दाग लग जाये और ऐसे में प्रथम सूचना में विलम्ब एक सामान्य तथ्य होता
है ।
9. धारा 376 (2) (जी) भा.दं.सं. के बारे में
गैंग रेप के मामले में अभियोजन के लिए यह आवश्यक नहीं होता कि वह
प्रत्येक अभियुक्त के सम्पूर्ण बलात्संग के बारे में साक्ष्य देवें । यह प्रावधान
संयुक्त दायित्व के सिद्धांत पर आधारित हैं केवल सामान्य आशय होना चाहिए। अभियुक्त
के आचरण से जो घटना के समय रहा है सामान्य आशय देखा जा सकता है। इस संबंध
में अवलोकनीय न्यायदृष्टांत उक्त ओम प्रकाश विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 2682 अवलोकनीय है। इस मामले में न्याय
दृश्टांत प्रदीप कुमार विरूद्ध यूनियन एडमिनिस्ट्रेशनछत्तीसगढ़, ए.आई.आर. 2006 एस.सी. 2992 एवं अशोक कुमार विरूद्ध
स्टेट ऑफ हरियाणा, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 777 एवं भूपेन्द्र शर्मा विरूद्ध स्टेट ऑफ हिमाचल प्रदेश, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 4684, प्रिया पटेल विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., ए.आई.आर. 2006 एस.सी. 2639 को विचार में लेते हुए यह प्रतिपादित
किया गया है कि गैंग रेप के मामले में अभियोजन को कौन से तत्व प्रमाणित करना होते
हैं जो इस प्रकार हैं:-
“10. To bring the offence of rape within the
purview of Section 376(2)(g) IPC, read with Explanation 1 to this section, it
is necessary for the prosecution to prove:
(i) that
more than one person had acted in concert with the common intention to commit
rape on the victim;
(ii) that
more than one accused had acted in concert in commission of crime of rape with
pre-arranged plan, prior meeting of mind and with element of participation in
action. Common intention would be action in concert in pre-arranged plan or a
plan formed suddenly at the time of commission of offence which is reflected by
the element of participation in action or by the proof of the fact of inaction
when the action would be necessary. The prosecution would be required to prove
pre-meeting of minds of the accused persons prior to commission of offence of
rape by substantial evidence or by circumstantial evidence; and
(iii) that
in furtherance of such common intention one or more persons of the group
actually committed offence of rape on victim or victims. Prosecution is not
required to prove actual commission of rape by each and every accused forming
group.
11. On proof of common intention of
the group of persons which would be of more than one, to commit the offence of
rape, actual act of rape by even one individual forming group, would fasten the
guilt on other members of the group, although he or they have not committed
rape on the victim or victims.
12. It is settled law that the
common intention or the intention of the individual concerned in furtherance of
the common intention could be proved either from direct evidence or by
inference from the acts or attending circumstances of the case and conduct of
the parties. Direct proof of common intention is seldom available and,
therefore, such intention can only be inferred from the circumstances appearing
from the proved facts of the case and the proved circumstances.”
न्यायदृष्टांत हनुमान प्रसाद विरूद्ध स्टेट ऑफ
राजस्थान, (2009) 1 एस.सी.सी. 507 गैंगरेप के मामले में सामान्य आशय के बारे में अवलोकनीय है।
यदि आरोपी पर धारा 376 भा.दं.सं. का आरोप विरचित किया गया हो और उसका अन्य अभियुक्त के साथ
सामान्य आशय प्रमाणित होता है तो उसे धारा 376 (2) (जी) भा.दं.सं. में दोशसिद्ध किया जा
सकता है। यदि इससे कोई प्रीजूडिस न होता हो । इस संबंध में न्यायदृष्टांत विश्वनाथन विरूद्ध
स्टेट, (2008) 5 एस.सी.सी. 354 अवलोकनीय है।
धारा 114 ए भारतीय साक्ष्य अधिनियम के बारे में
धारा 376 की उपधारा 2 के खण्ड ए से जी के मामले में बलात्संग के लिए किसी अभियोजन में जहां
अभियुक्त द्वारा मैथुन करना साबित हो जाता है और प्रश्न यह है कि क्या वह उस
स्त्री की सहमति के बिना किया गया है जिससे बलात्संग किया जाना अभिकथित है, और वह स्त्री
न्यायालय के समक्ष साक्ष्य में यह कथन करती है कि उसने सहमति नहीं दी थी वहां
न्यायालय यह उपधारित करेगा कि उसने सहमति नहीं दी थी।
इस तरह धारा 114 ए एक संशोधित प्रावधान है जिसमें न्यायालय को अभियोक्त्रि के सहमति
के अभाव में की उपधारणा करना अज्ञापक है यदि उसने सहमति नहीं देने का कथन किया है।
10. गैंग रेप में महिला आरोपी
न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ राजस्थान विरूद्ध हेमराज, ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 2644 में यह प्रतिपादित किया गया है कि धारा 376 (2) (जी) भा.दं.सं. का
स्पश्टीकरण किसी महिला को बलात्कार करने के आरोप में दोशी होने के लिए लागू नहीं
किया जा सकता । क्योंकि बलात्कार में किसी महिला का आशय हो यह नहीं माना जा सकता।
न्यायदृष्टांत प्रिया पटेल विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., (2006) 6 एस.सी.सी. 263 में यह प्रतिपादित किया गया है कि गैंग रेप के लिए किसी महिला को
अभियोजित या प्रोसीक्यूट नहीं किया जा सकता।
लेकिन यह तथ्य ध्यान में रखना चाहिए की ऐसे मामलों में यदि महिला
आरोपी हो तो उन पर अपराध के दुश्प्रेरण का आरोप धारा 109 भा.दं.सं. की मदद से
लगाया जाना चाहिए साथ ही धारा 120 बी भा.दं.सं. की सहायता से भी वैकल्पिक आरोप लगाये जा सकते है अतः
आरोप विरचित करते समय इस बारे में सावधान रहना चाहिए और प्रारंभ से ही यदि उचित
आरोप विरचित कर दिये जाते है तब निर्णय के समय या साक्ष्य के समय कठिनाई नहीं होती
है और आवश्यक साक्ष्य भी अभिलेख पर आ सकती है और निर्णय के समय भी कठिनाई नहीं आती
हैं।
11. उम्र के बारे में
इन मामलों में अभियोक्त्रि की उम्र का प्रश्न महत्वपूर्ण होता है
क्योंकि 16 वर्ष के कम उम्र की लड़की के साथ उसकी सहमति से या सहमति के बिना यदि
मैथुन किया जाता है तो बलात्संग की कोटि में आता है।
उम्र के मामले में माता-पिता की साक्ष्य जन्म प्रमाण पत्र स्कूल का
अभिलेख और मेडिकल परीक्षण अभिलेख पर आते हैं।
मेडिकल परीक्षण के बारे में यह धारणा है कि डॉक्टर द्वारा निर्धारित
उम्र में दो वर्ष जोड़कर अभियोक्त्रि की उम्र मानी जा सकती है। जो उचित नहीं है
क्योंकि न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ यू.पी. विरूद्ध छोटे लाल, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 697 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ऐसा कोई निरपेक्ष नियम नहीं है कि
डॉक्टर द्वारा निर्धारित उम्र में दो वर्ष जोड़े जावें। मामले में न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ कर्नाटक
विरूद्ध बंतरा सुधाकरा उर्फ सुधा, (2008) 11 एस.सी.सी. 38 तीन न्यायमूर्तिगण की पीठ पर विश्वास
करते हुए उक्त विधि प्रतिपादित की गयी है।
न्यायदृष्टांत सतपाल विरूद्ध स्टेट ऑफ हरियाणा, (2010) 8 एस.सी.सी. 714 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि की उम्र के निर्धारण
में स्कूल के रजिस्टर में जन्म दिनांक की प्रविष्टि साक्ष्य में ग्राहय होती है
क्योंकि यह प्रविष्टि पदीय कर्त्तव्यों के निर्वहन के दौरान की जाती है । जो धारा 35 भारतीय साक्ष्य
अधिनियम के तहत ग्राह्य होती है। लेकिन यह प्रविष्टि किसकी सूचना पर की गयी और
सूचना का सोर्स क्या था। ये तथ्य सूचना के अधिकृत होने के बारे में महत्वपूर्ण
होते हैं।
न्यायदृष्टांत उक्त नंदा विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 3211 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि
की उम्र में डॉक्टर की राय में मार्जिन ऑफ इरर छः माह माना जा सकता है।
न्यायदृष्टांत विष्णु विरूद्ध स्टेट ऑफ महाराष्ट्र, (2006) 1 एस.सी.सी. 283 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि की उम्र के निर्धारण
में मौखिक साक्ष्य पर वैज्ञानिक परीक्षण जैसे आसीफिकेशन टेस्ट की साक्ष्य बंधनकारक
नहीं होती है। अभियोक्ति माता-पिता की साक्ष्य उसकी जन्म तिथि के निर्धारण में
श्रेष्ठ साक्ष्य होती है।
न्यायदृष्टांत उमेश चन्द्र विरूद्ध स्टेट ऑफ बिहार, ए.आई.आर. 1982 एस.सी. 1057 में यह प्रतिपादित किया गया है कि माता और
पिता की साक्ष्य और जन्म प्रमाण पत्र उम्र के निर्धारण में श्रेष्ठ साक्ष्य होती
है और जब यह साक्ष्य उपलब्ध न हो तब स्कूल की रजिस्टर की प्रविष्टि देखना चाहिए और
वह प्रविष्टि किस सामग्री और किसकी सूचना के आधार पर की गई यह भी देखना चाहिए।
न्यायदृष्टांत सिद्देश्वर गांगूली
विरूद्ध स्टेट ऑफ वेस्ट बंगाल, ए.आई.आर. 1958 एस.सी. 143 के अनुसार जन्म
प्रमाण पत्र निश्चिायक साक्ष्य होता है लेकिन उसके उपलब्ध न होने पर न्यायालय को
भौतिक लक्षण मौखिक साक्ष्य के आधार पर निश्कर्श निकालने होते हैं केवल रेडियो
लॉजिकल टेस्ट के आधार पर कोई अंतिम मत नहीं बनाना चाहिए।
न्यायदृष्टांत विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 191 में यह प्रतिपादित
किया गया है कि अभियोक्त्रि की उम्र दांतों के परीक्षण लंबाई, वजन, सामान्य अपीरिएन्स, आसीफिकेशन, टेस्ट, जन्म प्रमाण पत्र, स्कूल रजिस्टर आदि से
निर्धारित की जा सकती है।
12. अभियोक्त्रि के शरीर पर चोटें न होना
इन मामलों में एक प्रश्न यह उत्पन्न होता है कि अभियोक्त्रि के शरीर
पर या उसके निजी अंगों या प्राइवेट पार्टस पर चोटें नहीं हैं लेकिन वैधानिक स्थिति
यह है कि अभियोक्त्रि के शरीर पर या उसके निजी अंगों पर चोटें न होना उसके कथनों
पर अविश्वास करने का पर्याप्त आधार नहीं है। इस संबंध में न्यायदृष्टांत उक्त स्टेट ऑफ यू.पी.
विरूद्ध छोटेलाल, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 697 अवलोकनीय है।
न्यायदृष्टांत राजेन्द्र उर्फ राजू विरूद्ध स्टेट ऑफ
एच.पी., ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 3022 में यह प्रतिपादित किया गया है कि
अभियोक्त्रि के शरीर पर चोटें न होने से यह अनुमान नहीं निकाला जा सकता कि वह सहमत
पक्षकार थी।
न्यायदृष्टांत उक्त विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 191 में यह प्रतिपादित
किया गया है कि अभियोक्त्रि के शरीर पर चोटें या हिंसा के चिन्ह न होना कोई प्रभाव
नहीं रखता है जहाँ अभियोक्त्रि अवयस्क हों।
न्यायदृष्टांत दस्त गिर साब विरूद्ध स्टेट ऑफ कर्नाटक, (2004) 3 एस.सी.सी. 106 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि के निजी अंगों पर चोटें
होना बलात्कार के आरोपों को प्रमाणित करने के लिए अनिवार्य तथ्य नहीं है।
न्यायदृष्टांत सोहन सिंह विरूद्ध स्टेट ऑफ बिहार, (2010) 1 एस.सी.सी. 688 उक्त में यह भी
प्रतिपादित किया गया है कि जहाँ अभियोक्त्रि विवाहित महिला हो वहाँ यह आवश्यक नहीं
है कि उसके शरीर पर कुछ बाहरी या भीतरी चोटें पायी जावें । अभियोक्त्रि के कथन
विश्वास किये जाने योग्य हैं।
13. अभियोक्त्रि के कथनों की पुश्टि
इन मामलों में न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए की जब तक बाध्यताकारी
परिस्थितियाँं न हो एक मात्र अभियोक्त्रि के कथनों पर यदि वे विश्वसनीय पाये जाते
हैं तो दोषसिद्धि स्थिर की जा सकती हैं अभियुक्त पूर्व सावधानी और परिस्थितियों को
देखकर ऐसे अपराध करता है इसे भी ध्यान में रखना चाहिए और पुष्टि पर ज्यादा बल नहीं
देना चाहिए।
यदि अभियोक्त्रि के कथन अपने आप में विश्वास योग्य पाये जाते हैं तो
वह पर्याप्त होते हैं तो उसकी साक्ष्य की पुष्टि आवश्यक नहीं होती है। इस संबंध
में उक्त न्न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ यू.पी. विरूद्ध छोटेलाल, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 697 अवलोकनीय है।
उक्त न्यायदृष्टांत राजेन्द्र उर्फ राजू विरूद्ध स्टेट ऑफ
एच.पी., ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 3022 में यह प्रतिपादित किया गया है कि
प्रत्येक मामले में अभियोक्त्रि के कथनों की पुश्टि आवश्यक नहीं होती हैं जहाँ
उच्च स्तर की असंभावना का प्रकरण हो केवल वहीं पुष्टि आवश्यक होती है।
यदि अभियोक्त्रि के एक मात्र कथन विश्वास योग्य हो तो पुष्टि की कोई
आवश्यकता नहीं है। न्यायालय उसके एक मात्र कथन पर दोषसिद्धि कर सकता है। इस संबंध
में न्यायदृष्टांत उक्त विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 391 अवलोकनीय है।
न्यायदृष्टांत श्रीनारायण शाह विरूद्ध स्टेट ऑफ
त्रिपुरा (2004) 7 एस.सी.सी. 775 में यह प्रतिपादित
किया गया है कि अभियोक्त्रि की साक्ष्य आहत साक्षी के साक्ष्य के समान होती है और
विधि में ऐसा कोई भी नियम नहीं है उसकी पुष्टि केे अभाव में विश्वसनीय नहीं होती
है।
न्यायदृष्टांत भूपेन्द्र शर्मा विरूद्ध स्टेट ऑफ
हिमाचल प्रदेश,
(2003) 8 एस.सी.सी. 551 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि के कथनों की पुष्टि
पर बल नहीं देना चाहिए।
न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ पंजाब विरूद्ध गुरमीत सिंह, ए.आई.आर. 1996 एस.सी. 1393 में यह प्रतिपादित किया है कि अभियोक्त्रि की साक्ष्य बहुत
महत्वपूर्ण होती है और जब तक बाध्यताकारी कारण न हो तब तक उसके कथनों की पुष्टि की
आवश्यकता नहीं होती हैं।
न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ केरला विरूद्ध कुरीसुम मोटिल
एन्थोनी (2007) 1 एस.सी.सी. 627 में यह प्रतिपादित किया गया है कि लैंगिक हमले के अपराधों में जिनमें
धारा 377 भा.दं.सं. भी शामिल है उनमें पुष्टि की आवश्यकता न होने का नियम लागू
होता है।
इस मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने यह कहां की अभियुक्त
पुष्टि के पुराने सूत्र का लाभ नहीं ले सकता यदि पूरा मामला देखने पर एक न्यायिक
मस्तिश्क को अभियोजन का मामला संभाव्य लगता है तब मानवाधिकार के प्रति न्यायिक
जवाबदेही को विधिक बाजीगरी से कुंठित नहीं होने देना चाहिए।
ऐसा ही मत न्यायदृष्टांत रफीक विरूद्ध स्टेट ऑफ यू.पी., (1980) 4 एस.सी.सी. 262 में भी लिया गया।
न्यायदृष्टांत भरवाड़ा भोगीन भाई हिरजी भाई विरूद्ध
स्टेट ऑफ गुजरात, ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753 में यह अभिमत दिया गया कि भारतीय परिवेश
में यदि लैंगिक हमले की अभियोक्त्रि के कथनों पर पुष्टि के अभाव में विश्वास न करना एक नियम की
तरह लिया गया तो यह आहत का अपमान होगा एक लड़की या महिला भारतीय परंपराओं से बंधे
हुए समाज में अपने साथ ऐसी घटना होना स्वीकार करने में या किसी को बताने में बहुत
अनिच्छुक रहती है क्योंकि ऐसी घटनाएँं उसके सम्मान को प्रभावित करती है इन सब
बातों को सामने आने का प्रभाव जानते हुये भी कोई लड़की या महिला अपराध को सामने
लाती है तो यह उसके मामले के जेन्यूइन होने की इनबिल्ट गारंटी होती है।
इस संबंध में न्यायदृष्टांत रामेश्वर विरूद्ध स्टेट ऑफ राजस्थान, ए.आई.आर. 1952 एस.सी. 54, स्टेट ऑफ महाराश्ट्र विरूद्ध चंद्रप्रकाश केवल चंद जैन, (1990) 1 एस.सी.सी. 550 भी अवलोकनीय हैं।
14. उसकी इच्छा के विरूद्ध और उसकी सहमति के विरुद्ध
न्यायदृष्टांत उक्त स्टेट ऑफ यू.पी. विरूद्ध छोटेलाल, ए.आई.आर. 2011 एस.सी. 697 में यह प्रतिपादित किया गया है कि उसकी
इच्छा के विरूद्ध से तात्पर्य है कि महिला द्वारा प्रतिरोध करने पर या विरोध करने
पर भी पुरूष ने उसके साथ सहवास किया है जबकि उसकी सहमति के विरूद्ध में कृत्य
जानबूझकर किया जाना शामिल है। इस न्याय दृश्टांत में इन दोनों शब्दों को स्पष्ट
किया गया है।
15. साक्ष्य के मूल्यांकन के बारे में
न्यायदृष्टांत राजेन्द्र उर्फ राजू विरूद्ध स्टेट ऑफ
एच.पी., ए.आई.आर. 2009 एस.सी. 3022 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि के प्रतिपरीक्षण में
यह तथ्य आया कि अभियुक्त ने उसके द्वारा बतलाये स्थान पर जाने से इंकार करने पर
उसे धमकी दी। यह तथ्य प्रथम सूचना और पुलिस कथन अंकित नहीं था । मात्र इस आधार पर
अभियोक्त्रि के कथन पर अविश्वास करना उचित नहीं माना गया।
अभियोक्त्रि की स्थिति आहत साक्षी से भी उच्च स्तर की होती है
न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ पंजाब विरूद्ध रामदेव सिंह, (2004) 1 एस.सी.सी. 421 अवलोकनीय हैं।
न्यायदृष्टांत प्रेम प्रकाश विरूद्ध
स्टेट ऑंफ हरियाणा, ए.आई. आर. 2011 एस.सी. 2677 में यह प्रतिपादित किया गया है कि
साक्षी का कथन पूरा पढ़ा जाना चाहिए । केवल कथनों की कुछ पंक्तियों पर पूरे संदर्भ
को देखे बिना विश्वास करना और उसके आधार पर निश्कर्श निकालना एक साक्ष्य का
त्रुटिपूर्ण मूल्यांकन है। साथ ही ऐसे ही विरोधाभास जो अभियोक्त्रि के कथनों को
अविश्वसनीय न बनाते हों वे तात्विक नहीं होते हैं।
इसी मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जहाँ डॉक्टर ऐसी राय
दें कि अभियोक्त्रि संभोग की अभ्यस्त है तब उस राय को मामले की पूूरे परिस्थितियों
में देखना चाहिए । इस मामले में अभियोक्त्रि का परीक्षण घटना के दो दिन बाद हुआ था
और डॉक्टर ने उसके साथ संभोग की संभावना से इंकार नहीं किया था इन परिस्थितियों
में मेडिकल राय देखी जाना चाहिए।
न्यायदृष्टांत संतोष मूल्या विरूद्ध स्टेट ऑफ कर्नाटक, (2010) 5 एस.सी.सी. 445 उक्त में भी यह प्रतिपादित किया गया है अभियोक्त्रि को एक माह चौदह
दिन बाद मेडिकल परीक्षण के लिए ले जाया गया । इतने दिन बाद अपराध के कोई चिन्ह
मिलना स्वाभाविक नहीं है।
न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ यू.पी. विरूद्ध पप्पू, (2005) 3 एस.सी.सी. 594 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोक्त्रि संभोग की अभ्यस्त है
यह निर्धारक प्रश्न नहीं हो सकता। अभियोक्त्रि की साक्ष्य का स्तर घटना के आहत
साक्षी से भी ऊंचा होता है।
न्यायदृष्टांत रामविलास विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., 2004 (2) एम.पी.एल.जे 177 में यह प्रतिपादित किया गया कि रास्ते से गुजरने वाले अनजान
व्यक्तियों को घटना नहीं बतायी मात्र इस आधार पर परिवादी के कथन अविश्वसनीय नहीं
माने जा सकते।
न्यायदृष्टांत राधू विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., 2007 सी.आर.एल.जे. 704 में माननीय सर्वोच्च
न्यायालय ने यह प्रतिपादित किया है कि अभियोक्त्रि के कथन छोटी कमियों और
विरोधाभास के कारण खारिज नहीं करना चाहिए। परिवादी के शरीर पर चोटें न होना सहमति
या केस के असत्य होने का साक्ष्य नहीं है। केवल डॉक्टर की राय की संभोग के कोई
चिन्ह नहीं पाये गये। अभियोजन को अविश्वसनीय मानने के लिए पर्याप्त नहीं है। लेकिन
यह भी ध्यान रखना चाहिए कि बलात्संग के असत्य आरोप अनकामन नहीं है।
16. परिस्थिति जन्य साक्ष्य के मामले में
न्यायदृष्टांत विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 391 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाँ गवाह ग्रामीण अशिक्षित हो और
समय के बारे में ज्यादा ज्ञान न रखते हों वहाँ उनसे घटना के हर विवरण और पूरी
श्रृंखला की अपेक्षा नहीं की जा सकती है। छोटे विरोधाभास जो अन्य बातों के बारे
में हों उन पर अधिक बल नहीं देना चाहिए।
जहाँ अभियुक्त ने परिस्थिति जन्य साक्ष्य के मामले में असत्य बचाव
लिया हो तो इसे परिस्थिति की एक ओर श्रृंखला उसके विरूद्ध मानी जा सकती है। इस
संबंध में न्यायदृष्टांत संतोष कुमार विरूद्ध स्टेट, (2010) 9 एस.सी.सी. 747 उक्त अवलोकनीय है।
17. पहचान परेड के बारे में
कई बार यह बचाव लिया जाता है कि अभियोजन ने पहचान परेड आयोजित नहीं
की। ऐसे अवसर पर यह ध्यान रखना चाहिए कि अभियोक्त्रि अभियुक्त के साथ लम्बे समय तक
रहती है और उसे अभियुक्त को देखने और पहचानने का पर्याप्त अवसर रहता है। अतः ऐसे
मामले में इन तथ्यों पर विचार करते हुए पहचान परेड न करवाना के प्रभाव पर विचार
करना चाहिए । इस संबंध में न्याय दृश्टांत सुभाश विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 2366 अवलोकनीय है।
उक्त न्यायदृष्टांत विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 191 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पहचान परेड की साक्ष्य तात्विक
साक्ष्य नहीं है। यह केवल प्रज्ञा का नियम है और वहाँ आवश्यक होती है जहाँ गवाह या
परिवादी अभियुक्त को नहीं जानते हों।
न्यायदृष्टांत दस्त गिर साब विरूद्ध स्टेट ऑफ कर्नाटक, (2004) 3 एस.सी.सी. 106 में यह प्रतिपादित किया गया है कि पहचान परेड एक पुश्टिकारक साक्ष्य
है और ऐसा कोई नियम नहीं है कि पहचान परेड न करवाना अभियोजन के मामले को अप्रमाणित
कर देता है। मामले में पहचान परेड कब आवश्यक नहीं है इस पर भी प्रकाश डाला गया है।
18. मेडिकल रिपोर्ट प्रमाणीकरण
उक्त न्यायदृष्टांत सुभाष विरूद्ध स्टेट ऑंफ एम.पी., आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 3226 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जिस
डॉक्टर ने मेडिकल रिपोर्ट दी हो वह उपलब्ध न हो तब अस्पताल के किसी अन्य कर्मचारी
जैसे वार्ड ब्वाय, नर्स जो डॉक्टर के हस्ताक्षर पहचानता हो उनका साक्ष्य लेकर भी मेडिकल
रिपोर्ट प्रमाणित करवायी जा सकती है। क्योंकि डाक्टर ने ऐसी रिपोर्ट अपने पदीय
कर्त्तव्यों के निर्वहन के दौरान दी होती है जिसे धारा 32 (2) एवं 67 साक्ष्य अधिनियम के
तहत उक्त अनुसार प्रमाणित करवाकर विचार में लिया जा सकता है। यहॉं तक कि न्यायालय
स्वयं धारा 311 दं.प्र.सं. के तहत ऐसी मेडिकल रिपोर्ट के लिए अन्य डॉक्टर को साक्ष्य
में बुला सकते हैं।
न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ एम.पी. विरूद्ध दयाल साहू, 2005 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू. 4839 में यह प्रतिपादित किया गया है कि
अभियोक्त्रि का परीक्षण जिस डॉक्टर ने किया उसका कथन नहीं करवाया गया डॉक्टर की
रिपोर्ट पेश नहीं की गई यदि अभियोक्त्रि की साक्ष्य और अन्य साक्ष्य विश्वसनीय है
तो मात्र डॉक्टर का परीक्षण न करवाना अभियोजन के घातक नहीं हैं।
इस प्रकार जहां डॉक्टर का कथन किन्हीं कारणों से नहीं करवाया जा सका
है और अन्य साक्ष्य विश्वसनीय है तब डॉक्टर का कथन न करवाने के कारण अभियुक्त को
कोई लाभ नहीं मिलेगा।
19. अभियोक्त्रि की सहमति के बारे में
उक्त न्यायदृष्टांत सतपाल विरूद्ध स्टेट ऑफ हरियाणा, (2010) 8 एस.सी.सी. 714 में यह प्रतिपादित
किया गया है कि जहाँ परिवादी असहाय हों वहाँ यह नहीं कहा जा सकता कि उसकी सहमति थी
। धमकी भी बल प्रयोग के समान है। अतः परिवादी की सहमति के तथ्य पर विचार करते समय
इस बिंदू पर ध्यान रखना चाहिए।
न्यायदृष्टांत विजय उर्फ चीनी विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., (2010) 8 एस.सी.सी. 391 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाँ अभियोक्त्रि ने यह कथन किया
कि उसे बलपूर्वक पकड़ा और चाकू की नोक पर धमकी देकर उसके साथ गैंग रेप किया गया।
ऐसे में धारा 114-ए भारतीय साक्ष्य अधिनियम के तहत यह उपधारणा की जा सकती है कि उसकी
सहमति नहीं थी।
न्यायदृष्टांत कैप्टन सिंह विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 2715 में कन्सेन्ट और सबमीशन में अंतर को
स्पश्ट किया गया है और यह बतलाया गया है कि प्रत्येक कन्सेन्ट में सबमिशन होता है
लेकिन प्रत्येक सबमिशन कन्सेन्ट नहीं होती है। कन्सेन्ट का तात्पर्य जब एक महिला
स्वतंत्रता पूर्वक स्वयं को प्रस्तुत करने में सहमत होती है और शारीरिक और नैतिक
रूप से स्वतंत्र रूप से समर्पित होती है। तब सहमति मानी जाती है।
न्यायदृष्टांत तुलसीदास विरूद्ध स्टेट आफ गोवा, (2003) 8 एस.सी.सी. 590 में भी कन्सेन्ट और सबमीशन के अंतर को ही स्पश्ट किया गया है।
जहाँ अभियोक्त्रि अशिक्षित अनुसूचित जनजाति की कमजोर मस्तिश्क की
लड़की हो और सहमति देने में भी सक्षम न हो । ऐसे में उसका सहवास में विरोध न करना
स्वतंत्र सहमति नहीं माना गया। न्यायदृष्टांत दरबारी सिंह विरूद्ध
स्टेट ऑफ एम.पी.,
2004 (1) एम.पी.एल.जे. 508 अवलोकनीय है।
20. अभियोक्त्रि का परीक्षण न होना
अभियोक्त्रि की मृत्यु के कारण उसका परीक्षण न हो सका लेकिन यह
अभियुक्त के दोशमुक्ति का आधार नहीं हो सकता । यदि अभिलेख पर अपराध प्रमाणित करने
के लिए अन्य साक्ष्य उपलब्ध हो तब अभियोक्त्रि के कथनों के अभाव में भी दोशसिद्ध
की जा सकती है । इस संबंध में न्यायदृष्टांत भोलाप्रसाद रैदास
विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., आई.एल.आर. 2009 एम.पी. 2433 अवलोकनीय है। जिसमें न्यायदृष्टांत स्टेट आफ कर्नाटक विरूद्ध
महाबलेश्वर जी नायक, ए.आई.आर. 1992 एस.सी. 2043 पर विश्वास करते हुए
उक्त विधि प्रतिपादित की है।
21. शपथ पत्र के बारे में
न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ एम.पी. विरूद्ध बबलू नट, (2009) 2 एस.सी.सी. 272 में यह प्रतिपादित किया गया है कि ऐसा शपथ पत्र जिसके तथ्यों की
अभियोक्त्रि को जानकारी न हो और अभियुक्त ने उसमें अभियोक्त्रि की उम्र 18 वर्ष लिखवायी हो और
उसका पत्नी के रूप में साथ रहना लिखवाया हो । वह अपने आप में अभियोक्त्रि की
मानसिक पीड़ा देखने के लिए पर्याप्त है। और ऐसे शपथ पत्र का दण्ड के प्रश्न पर कोई
महत्व नहीं है।
22. अभियोक्त्रि के शब्दों के बारे में
जहाँ अभियोक्त्रि एक विवाहित महिला थी और उसके कथनों में अभियुक्त के
कृत्य को ‘‘फोन्डलिंग‘‘ बतलाया इसे शील भंग करना माना गया। बलात्कार नहीं माना गया इस संबंध
में न्यायदृष्टांत प्रेमिया उर्फ प्रेम प्रकाश विरूद्ध स्टेट ऑफ राजस्थान, (2008) 10 एस.सी.सी. 81 अवलोकनीय है ।
न्यायदृष्टांत अनु उर्फ अनूप कुमार विरूद्ध स्टेट ऑफ
एम.पी., आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 2435 में यह प्रतिपादित किया गया है कि शब्द ‘मेरे साथ उसने गलत
काम किया‘ इन शब्दों को अन्य परिस्थितियों के साथ देखें तो यह स्पश्ट है कि
अभियोक्त्रि यह कहना चाहती थी कि अभियुक्त ने उसके साथ बलात्कार किया । अतः
परिवादी द्वारा कहे गये शब्द समग्र परिस्थिति में देखना चाहिए।
23. न्यायदृष्टांतों का मूल्य
न्यायदृष्टांत लालीराम विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी., (2008) 10 एस.सी.सी. 69 में यह प्रतिपादित
किया गया है कि दाण्डिक विचारण में साक्ष्य मूल्यांकन में न्यायदृष्टांत लागू नहीं
होते हैं बल्कि तथ्यों के आधार पर निराकरण होता है।
24. बाल साक्षी के बारे में
जहाँ अभियोक्त्रि बाल साक्षी हो वहाँ उसकी साक्ष्य मात्र इस कारण
अस्वीकार नहीं करना चाहिए बल्कि सावधानी पूर्वक उसके कथनों पर विचार करना चाहिए
बाल साक्षी को सिखाये जाने की संभावना रहती है । अतः न्यायालय को उसकी साक्ष्य के
मूल्यांकन के समय यह देखना चाहिए की साक्षी ने जो साक्ष्य दी है वो स्वेच्छा से या
बिना किसी प्रभाव के दी है या नहीं । इस सबंध में न्यायदृष्टांत मोहम्मद कलाम विरूद्ध
स्टेट ऑफ बिहार,
(2008) 7 एस.सी.सी. 257 अवलोकनीय है।
25. शादी का वादा
न्यायदृष्टांत प्रदीप कुमार वर्मा विरूद्ध स्टेट ऑफ
बिहार, 2007 सी.आर.एल.जे. 433 एस.सी.सी. में यह प्रतिपादित
किया गया है कि अभियुक्त द्वारा परिवादी की सहमति प्राप्त करने के लिए उसे यह
दुर्व्यपदेशन जानते हुए किया कि वह परिवादी से विवाह नहीं करेगा और विवाह का
प्रस्ताव किया । ऐसी सहमति दूशित होती है और वह कृत्य धारा 375 भा.दं.सं. की परिधि
में आता है।
न्यायदृष्टांत उदय विरूद्ध स्टेट ऑफ कर्नाटक, ए.आई.आर. 2003 एस.सी. 1639 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाँ
अभियुक्त अभियोक्त्रि की सहमति संभोग करने में उससे विवाह करने का प्रस्ताव रखकर
प्राप्त करता है और अगले दिन उससे विवाह नहीं करता है तो यह भारतीय दण्ड संहिता के
तहत बलात्संग की कोटि में नहीं आता है। न्यायदृष्टांत दिलीप सिंह विरूद्ध
स्टेट ऑफ बिहार ए.आई.आर. 2005 एस.सी. 203 अब्दुल सलाम विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., 2006 (3) एम.पी.एच.टी. 121 भी इसी संबध्ंा में अवलोकनीय है।
न्यायदृष्टांत भूपेन्द्र सिंह विरूद्ध यूनियल टेरीटोरी
ऑफ चंडीगढ़, (2008) 8 एस.सी.सी. 531 के मामले में अभियुक्त ने स्वयं को अविवाहित बतलाकर अभियोक्त्रि से
विवाह किया था बाद में अभियोक्त्रि को पता लगा कि आरोपी विवाहित है आरोपी को धारा 375 के चौथे भाग के क्रम
में धारा 376 भा.दं.सं. का दोषी पाया गया साथ ही धारा 417 भा.दं.सं. का भी दोषी
पाया गया।
इस प्रकार जहां परिवादी की सहमति विवाह कर लेने का प्रस्ताव रखकर ली
गई हो और बाद में विवाह नहीं किया तो मामला बलात्संग की परिधि में नहीं आयेगा
लेकिन ऐसी साक्ष्य हो की प्रस्ताव रखते समय ही आरोपी विवाह नहीं करेगा यह जानते
हुये उसने दुर्व्यपदेशन करके परिवादी की सहमति पर्याप्त की हो वहां उक्त न्याय
दृश्टांत प्रदीप कुमार से मार्गदर्शन लेना चाहिए साथ ही तीसरी स्थिति उक्त भूपेन्द्र सिंह वाले मामले में बतलायी है जिसे ध्यान
में रखना चाहिए।
26. गर्भवती स्त्री से बलात्कार
न्यायदृष्टांत महेन्द्र गुरू विरूद्ध स्टेट ऑफ एम.पी., 2005 (2) एम.पी. डब्ल्यू.एन. 29 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोजन को यह प्रमाणित करना चाहिए
कि अभियुक्त को यह ज्ञान था कि अभियोक्त्रि गर्भवती है फिर भी उसने बलात्कार किया
तब मामला धारा 376 (2) (ई) भा.दं.सं. में आयेगा।
27. प्रवेशन के बिना स्खलन
न्यायदृष्टांत गोपालू वेंकटराव विरूद्ध स्टेट ऑफ ए.पी., (2004) 3 एस.सी.सी. 602 में यह प्रतिपादित
किया गया है कि प्रवेशन के बिना स्खलन बलात्संग का अपराध गठित नहीं करता है।
क्योंकि बलात्संग के अपराध के लिए प्रवेशन आवश्यक है स्खलन आवश्यक नहीं है । इसे
बलात्संग का प्रयास कहा जा सकता है।
28. षड़यंत्रकारी के बारे में
न्यायदृष्टांत मोईजुल्लाह उर्फ पुट्टन विरूद्ध स्टेट
ऑफ राजस्थान, (2004) 2 एस.सी.सी. 90 में यह प्रतिपादित किया गया है कि बलात्कार के अपराध के आपराधिक
षड़यंत्र के मामले में यह आवश्यक नहीं है एक षड़यंत्रकारी जिस तरीके से कार्य करता
है दूसरा षड़यंत्रकारी भी उसी तरीके से कार्य करे। लेकिन दोनों का किसी अवैध
कृत्यों को करने के लिए सहमत होना आवश्यक होता है।
29. झूठा फंसाने का बचाव
इन मामलों में प्रायः एक बचाव यह लिया जाता है कि अभियुक्त को मामले
में असत्य रूप से फंसाया गया है।
इन मामलों में यह उपधारणा लेना चाहिए की आरोप वास्तविक या जैनयून है
न कि असत्य जब तक की ऐसे तथ्य न हो कि महिला की सहमति या उसका कंप्रोमाईजिंग
पोजिशन में होना न दिखता हो इस संबध्ंा में न्यायदृष्टांत भरवाड़ा भोगीन भाई
हिरजी भाई विरूद्ध स्टेट ऑफ गुजरात, ए.आई.आर. 1993 एस.सी. 753 अवलोकनीय हैं।
न्यायदृष्टांत उक्त जसवंत सिंह विरूद्ध स्टेट ऑफ पंजाब, ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 894 में यह प्रतिपादित किया गया है कि संयुक्त दीवार के विवाद के कारण
अभियुक्त को झूठा फंसाने का बचाव लिया गया जो स्वीकार योग्य नहीं पाया गया क्योंकि
यह विवाद इतना गंभीर नहीं था की अभियोक्त्रि इसके लिए अपने परिवार की प्रतिश्ठा को
दांव पर लगायेगी और अभियुक्त को झूठा फंसायेगी।
30. दण्ड के बारे में
इन मामलों में दण्ड के प्रश्न पर न्यायालय को सतर्क रहना चाहिए और यह
ध्यान रखना चाहिए की ये अपराध सामान्य श्रेणी के अपराध नहीं है बल्कि ये अपराध
किसी लड़की या महिला को गंभीर रूप से प्रभावित करने वाले अपराध है जिसके चिन्ह
वर्शों तक उस लड़की या महिला के मस्तिश्क पर बने रहते है अतः न्यायालय को इन मामलों
में अपेक्षाकृत कठोर दण्ड देना चाहिए और कोई दया नहीं दिखाना चाहिए।
जहाँ हत्या और बलात्कार के मामले में मृत्युदण्ड और आजीवन कारावास
में चुनाव करना हो और न्यायालय कौन सा दण्ड दे यह तय करने में कठिनाई महसूस कर रहे
हों वहाँ छोटा दण्ड देना चाहिए। इस संबंध में न्यायदृष्टांत संतोश कुमार विरूद्ध
स्टेट, (2010) 9 एस.सी.सी. 747 अवलोकनीय है।
न्यायदृष्टांत महबूब बच्चा विरूद्ध स्टेट, (2011) 7 एस.सी.सी. 45 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभिरक्षा में मृत्यु और महिलाओं के
विरूद्ध अपराध में अपेक्षाकृत कठोर दण्ड देना चाहिए और कोई दया नहीं दिखाना चाहिए।
मामले में न्यायदृष्टांत सत्यनारायण तिवारी विरूद्ध स्टेट ऑफ यू.पी., (2010) एस.सी. 689 एवं सुखदेव सिंह विरूद्ध स्टेट ऑफ पंजाब, (2010) 13 एस.सी.सी. 656 पर विचार करते हुए यह कहा गया है कि महिलाओं के विरूद्ध अपराध
सामान्य अपराध की तरह नहीं होते हैं बल्कि सामाजिक अपराध होते हैं और ये पूरे
सामाजिक ताने-बाने को विचलित करते हैं। इसलिए इन मामलों में कठोर दण्ड अपेक्षित
है।
न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ एम.पी. विरूद्ध बबलू नट, (2009) 2 एस.सी.सी. 272 में यह प्रतिपादित किया गया है कि न्यायपालिका को इस सिद्धांत को
मस्तिश्क में रखना चाहिए कि बलात्कार किसी महिला के निजता का उल्लंघन और उस पर
हमला है जो महिला के मस्तिश्क पर क्षत चिन्ह या धब्बे छोड़ देता है महिला को न केवल
शारीरिक चोट पहुँचाता है बल्कि मृत्यु तुल्य कश्ट भी पहुँचाता है। ऐसा अपराध जो
समाज की नैतिकता को प्रभावित करता हो उसमें कठोरता से दण्ड के प्रश्न पर विचार
करना चाहिए।
न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ कर्नाटक विरूद्ध राजू, ए.आई.आर. 2007 एस.सी. 3225 में यह प्रतिपादित किया गया है कि
न्यूनतम निर्धारित दण्ड से कम दण्ड इस आधार पर देना कि अभियुक्त अशिक्षित और
ग्रामीण है यह विशेश कारण नहीं है। दस वर्श की लड़की के साथ बलात्कार के मामले में
साढ़े तीन साल की सजा अपर्याप्त है । इस मामले में दण्ड के प्रश्नों पर विचार योग्य
तथ्यों पर प्रकाश डाला गया है। इस संबंध में न्यायदृष्टांत स्टेट आफ एम.पी.
विरूद्ध बालू (2005)
1 एस.सी.सी. 108 भी अवलोकनीय है। जिसमें अभियुक्त के
ग्रामीणों और अशिक्षित होने के आधार पर सजा कम की गयी थी जिसे उचित नहीं माना गया।
न्यायदृष्टांत सीरिया उर्फ श्रीलाल विरूद्ध स्टेट ऑफ
एम.पी., (2008) 8 एस.सी.सी. 72 में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाँ रक्षक ही भक्षक बन जाये वहाँ
न्यायालय का यह कर्त्तव्य है कि समाज को सुरक्षा देने के लिए ऐसे गंभीर और शॉकिंग
अपराध में उचित दण्ड देवें इस मामले में एक पिता ने अपने पुत्री के साथ बलात्कार
किया था।
न्यायदृष्टांत स्टेट ऑफ एम.पी. विरूद्ध मुन्ना चौबे, (2005) 2 एस.सी.सी. 710 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अपराध और दण्ड के बीच उचित अनुपात
होना चाहिए और यही लक्ष्य भी होना चाहिए विशेश कारण होने पर न्यूनतम से कम दण्ड
दिया जाना चाहिए।
31. शीलभंग के बारे में
धारा 354 भा.दं.सं. का अपराध अब अशमनीय है यह अपील के निराकरण के समय ध्यान
रखना चाहिए।
धारा 354 ए भा.दं.सं. सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय अपराध है जिसमें न्यूनतम 1 वर्ष के कारावास और
अर्थदण्ड का प्रावधान है जो 10 वर्ष तक हो सकता हैं इस तथ्य को ध्यान रखना चाहिए।
धारा 377 भा.दं.सं. का अपराध अब सत्र न्यायालय द्वारा विचारणीय हैं।
32. प्रतिकर के बारे में
न्यायालय को धारा 357 एवं 357 ए दं.प्र.सं. के प्रावधान प्रतिकर के निर्धारण के समय ध्यान रखना
चाहिए और ऐसा युक्तियुक्त अर्थदण्ड करना चाहिए जिसमें से अभियोक्त्रि को प्रतिकर
दिलवाई जा सकती है।
33. प्रयत्न के बारे में
यदि बलात्कार का अपराध प्रमाणित न होकर बलात्कार के प्रयत्न या
अप्राकृतिक कृत्य या शीलभंग के प्रयत्न का अपराध प्रमाणित हो तब अभियुक्त को धारा 511 भा.दं.सं. की सहायता
से निर्धारित दण्ड से आधा दण्ड देना चाहिए।
इस तरह इन मामलों में बंद कमरे में जांच या विचारण करना आज्ञापक है।
अभियोक्त्रि का नाम और पहचान का उल्लेख निर्णय में न हो यह सावधानी रखना चाहिए
यहां तक की आरोप पत्र और अभियुक्त परीक्षण में भी और साक्ष्य में भी अभियोक्त्रि
शब्द नाम के बजाय उल्लेख कर लिया जाये तो उचित रहता हैं। विचारण के समय उक्त
आवश्यक सावधानियाँ और संवेदनशीलता रखना चाहिए। दण्ड के समय यथासंभव कठोर रूख
अपनाना चाहिए और विचारण शीघ्र पूर्ण हो सके इसके सर्वोत्तम प्रयास करना चाहिए उक्त
वैधानिक स्थितियों को ध्यान में रखना चाहिए तभी न्याय के उद्देश्य की प्राप्ति हो
सकेगी।
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